Sunday 17 June 2012

वो टूटा शीशमहल

हो मदहोश अपनी ही धुन में
जिसके खिलाफ दी दुनिया ने दुहाई है,
हमने भी उसे गलत टहरा
दुनिया से वफादारी निभाई है।
दुनिया अपनी सगी लगती
कोई खोट न उसमे पाई है,
उसे गलत करार देती
कोई घटना न सामने आई है।


वो कहती है शीशमहल टूटेगा ही
हमने भी उसकी हाँ में ही हाँ मिलाई है।
रेत का घरोंदा बहेगा ही, यह सहज है उतना ही
जितना की, हर रात के बाद एक नई सुबह आई है।
थे हम भी इस बात से भले सहमत,
चूँकि दुनिया ने यह सिखाई है।
पर एक दिन मिला हमें भी 'एक शीशमहल',
क्या खूब महल की वो परछाई है।


दुनिया ने कहा बहुत की,
हमने भी अब वही गलती दोहराई  है!
पर यह बात की यह महल न टूटेगा,
सिर्फ हमें ही समझ में आई है।
 जी-जाँ  से संभालेंगे,
यह कसम हमने खाई है।
हुआ जो सबके साथ, वह होगा न हमारे साथ
यह हमारी खुदाई है।


हम पूर्ण करेंगे जो करने की
जेहमत हमने उठाई है।
वह महल चमक-चमकता सा,
हर बात की दे रहा गवाही है।
आज कल पर हवा में भी
एक नव तृष्णा  सी आई है।
लोग है की अक्सर ही, भ्रम में हैं जिया करते
जो है ही नहीं मन ही मन वो दुनिया बसाई  है।


विश्वास हमारे जीतेंगे, दुनिया गलत है
यह बात उस शीशमहल से मनवाई है।
फिर आखिर एक दिन
अनहोनी बन गयी सच्चाई  है।
दुनिया की उहा-पोह, चिड -चपट  के बीच में,
एक भीषण आंधी आई है।
बीत जाने, उस आंधी के बाद देखा तो
जमीं पर हमारा शीशमहल धराशाही है!


"शीशमहल बना ही टूटने के लिए है"
एक गूंज आई है।
इस टूटे हुए महल की ही खातिर
क्या हमने सर पर दुनिया उठाई है?
सब कहते थे और  हुआ सब के साथ जो
हमारी किस्मत भी हमने उसी कलम से लिखवाई है।
उसी तरह बह गए सारे घरोंदे रेत के, बड़े मन से बनाए थे
अब उन्हें लहरों की बलि चढ़ाई है!


एक विश्वास था, स्वप्न था
हो कुछ अलग यह दुआ भिजवाई है।
पर वहां भी हाथ लगी
तो महज रुसवाई है।
और हुआ वही होना जो था
एक पल के जोश में, किस्मत किसने झुकाई है।
विनाश की शक्ति के आगे
दुआ भी कब काम आई है।


दुनिया कहती थी, सही थी
यह बात पुरातन से चलती आई है।
लगता हमें अवश्य है की होगा कुछ और,
और एक नई चाह उपजाई है।
पर होता अंत में वही
नहीं कोई इसकी दवाई है।
दुनिया न किसी की सगी,
न ही किसी की पाराई है
बस भ्रम से उभरे हुए
लोगों की आवाजाही है । 

Wednesday 11 April 2012

जिंदगी क्या है














तुमने हमसे पूछा कि जिंदगी क्या है 
हमने तुमसे कहा कि .... ....

जिंदगी... वो नहीं जो हम सोचते हैं 
जिंदगी तो वो है जो हमें सोचने पर मजबूर करती है
जो हमें नई  सोच, नई  उमंग के साथ
जीने  के लिए  प्रोत्साहित करती है              

जिंदगी सिर्फ जीना भर ही  नहीं है 
यह सोचते ही एहसास हुआ की जिंदगी क्या है 
और हम उसे क्या समझ रहे थे

जिए किसके लिए, किसलिए जिए
 'ताकि' आखरी वक़्त में यह न सोचना पड़े 
की कुछ फैसले गलत हुए
नहीं तो जिंदगी की तस्वीर कुछ और होती
गुजर तो गयी पर एक कसक बाकी रही

क्या हुआ जो साथ छूट गए सारे 
क्या हुआ जो सपने टूट गए सारे
फिर भी चलती रहेगी
इन सबके परे है जिंदगी
   
जिंदगी है एक  अनसुलझी पहेली
सुलझाने  की कोशीश बहुत से लोगों ने की
दिवा स्वप्न की भांति, 'पूर्णता' का नाम नहीं है जिंदगी
यथार्थ या यथाबोध में,कठोर धरातल की तरह सपाट है जिंदगी

कभी सोचा था जो,  वो थी मात्र
स्वप्नों की परोक्ष शुरुआत 
और आज  है जो, मेरे सामने 
वो है प्रत्यक्ष हकीकत ।


अब समझ आया    
कितना अंतर है सोचने और जीने में । 

Tuesday 10 April 2012

वो रोमानी सी मुस्कान थी बस

वो रोमानी सी मुस्कान थी बस
बहुत पुरानी सी इक याद थी बस

शहर में बसी, झूठी शान थी बस
हकीकत की यहाँ थी हलकी ही प्रतीति बस

न जाने वो गली ही क्यूँ ख़ास थी बस
मन में अबूझी सी एक प्यास थी बस

जहन में विदित एक अनुभूति व्याप्त थी बस
केवल मन को ख़ुशी नहीं प्राप्त थी बस
 

असफल सी,अधूरी सी एक आस थी बस
बड़े से घर में छोटी सी जान थी बस

मिटी-मिटाई सी, बच गई जो वो ही पहचान थी बस
नाम भर की उस घर में थी सुभगता, वो भी एक ख्वाब थी बस

घर की याद टूटे-बिखरे रूप में मकान थी बस 

बिछड़ गयी सालों पहले मैं अनजान थी बस

जीने का दिल नहीं रहा, बाकी सिर्फ सांस थी बस
पैरो में फ़ालिज का कारण महज फांस थी बस

तन्हाई ही इकलौती रह गयी, वही पास थी बस
भीड़ में अकेलेपन का एहसास थी बस

जिंदगी के गोलाम्बर में अटकी, वही रही तक़दीर बस
उम्मीद की एक आड़ी-तिरछी सी
थी लकीर बस

हाथ में पतवार नहीं, साथ डूबती कश्ती थी बस
मंजिल पर पहुंचकर भी नजर में आ रही सिर्फ एक बस्ती थी बस

मन में अरमान बसाने की फरमाइश थी बस
कुछ कर दिखने की धधकती सी ख्वाहिश थी बस

जब कुछ नहीं रहा तो बची, सिर्फ आँखों में चमक थी बस
सीने में चुभती हुई , दबी सी कसक थी बस

नमी में ही आग को बुझाने की शक्ति थी, बस
पलकों पे जिद की एक सख्ती थी बस

एक वक़्त में मौत को हराने की संजीदगी थी बस
अब जो शेष रही, वो सिर्फ जिंदगी थी बस

Saturday 7 April 2012

पिंजरा


हम कल भी थे,
हम आज भी हैं
और हम कल भी होंगे
न जाने हम तब
कैसे होंगे ?
रिश्ते यह पिंजरे से हैं,
रिश्तों के यह बंधन जो
आज हैं हमारे
छुट गए जिस क्षण
तोड़ यह बंधन
हो मुक्त वो जाएगा।
वह पंची उड़ जाएगा।
एक दिन शायद यह सपना
है जो उसका वो पूरा हो जाएगा।
पर कैसे?
आखिर कर्त्तव्य कुछ निभाने हैं
लौट आएगा, रिश्तों को यों भुला ना पायेगा
पर कैसे?
किस रूप में, कब और कहाँ
यह बात न कोई जान पायेगा
रिश्तेनुमा पिंजरा न पहचान पायेगा । 

अधूरी सी ही यह दास्ताँ रह जाती है

जाने वो कौन - कौन से,
द्वार खट-खटाती है।
फिर भी न जाने क्यों?
कुछ न पा पाती है ।
और फिर एक बात अनकही ही रह जाती है ।
जाने क्या बात है की हर बार ही,
अधूरी सी ही यह दास्ताँ रह जाती है !


न जान पाया है कोई की,
क्या पूरी होगी वो कभी?
पर इतना है सबको पता
की अंतिम घडी है दूर अभी।
घुप्प उन अँधेरे रहस्यों के पीछे पाई जाती है,
और तब
की ही तरह इस बार भी
अधूरी सी ही यह दास्ताँ रह जाती है !


जब आखिरकार, मिलने लगते हैं
हमारे हज़ारों सवालो के नायाब जवाब
तब गोपनीय ढंग से कहीं पर
हमारी किताब
ही खो जाती है।
अपने साथ हर बार वह भीषण तबाही लाती है
मानो साथ में जैसे अस्पष्ट एक तूफान लाती है, और
अधूरी सी ही यह दास्ताँ रह जाती है !


जब मिलने लगती है मंजिल, तो रास्ता है धुधला जाता
लाख खोजने पर भी, फिर न वो है मिल पाता
इसी तरह वह चाबी भी
कभी मिल नहीं पाती है
जो अंतिम दरवाज़े के पीछे का दृश्य दिखलाती है।
और सब-कुछ जानती- बुझती
अधूरी सी ही यह दास्ताँ रह जाती है